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जाति की मान्यता नेताओं और मध्यम वर्ग में थी, अब उन्होंने भी छोड़ना शुरू कर दिया है।

नेताओं ने बनाया है जाती, जनता का सरोकार नहीं 

आज के इस दौर में लोगों की जरूरतों ने जातीय समीकरण बदल कर रख दिया है। जात पात उंच नीच अब सिर्फ नेता और राजनीतिक पार्टियों व उनकी सत्ता की लालच में बचा है। इसलिए मेरा मानना है कि एससी एसटी कानून और आरक्षण को खत्म कर देना चाहिए ताकि लोग एक दूसरे के और नजदीक जा सकें और भेद-भाव खत्म हो जाय। तनाव व भेद-भाव खत्म हो जाने पर समाज में और बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा और यह बिखरा हुआ समाज सीमट कर एक संपूर्ण विकसित राष्ट्र बन जायेगा। मेरे यह विचार कुछ लोगों को जरूर चुभेंगे शायद वह मुझे गाली भी दें, लेकिन मैं जो लिखने जा रहा हूँ उसको पढियेगा जरुरू।

मैं जिस इमारत में रहता हूं (मैं उस इमारत का नाम नहीं लिखूंगा) उस में उत्तर भारतीय, बिहार और महाराष्ट्र के ज्यादातर लोग रहतें हैं। सभी मध्यम वर्गीय परिवार हैं किसी तरह से मेहनत मजदूरी करने के बाद अपने लिए यह एक आशियाना बनाया है। यहां मैं जो कहने जा रहा हूँ वह देखा तो जरूर होगा आपने पर उसके बारे में विस्तृत विचार नहीं किया होगा की ऐसा क्यों हो रहा है।

आज के इस दौर में लोग पेट भरने के लिए एक प्रदेश से दुसरे प्रदेश जा रहे हैं। कुछ लोग तो वहीं के बासिंदे हो गये हैं। यहां तक कि रोटी बेटी का रिश्ता भी उसी प्रदेश के लोगों से करने लगे हैं। इसका कारण जो मैंने देखा और समझा वह मैं यहाँ बयान करने जा रहा हूँ। बेटी के बड़ी हो जाने पर हर माता पिता व परिवार की यह इच्छा होती है कि अपनी बेटी एक सुखी घर में जाय ताकि उसका जिवन सुखमय हो। परिवार की सोच को गलत भी नहीं कहा जा सकता, पर अपेक्षा ज्यादा होनेपर विकृति पैदा हो जाती है, जिससे दुखी होकर लोग रास्ता बदलने लगते हैं। मैं खुद एक उत्तर भारतीय परिवार से हूँ इसलिए पहले उसीके बारे में लिख रहा हूँ। हां यह बात और है कि हमारा रिश्ता अब उत्तर प्रदेश से सिर्फ पिकनिक स्पाट की तरह रह गया है। उत्तर भारत में दहेज प्रथा बहुत ही विकृत प्रथा है, लोग दहेज न मिलने को अपनी बदनामी से जोड़ लेते हैं। जो बड़े घराने पैसे वाले लोग हैं वे लोग तो मुंह मांगा दहेज देकर लड़की के अनुरूप लड़के का चयन कर लेते हैं। परंतु दहेज की लालच में बैठे मध्यम वर्ग के लड़के इंतजार करते रह जाते हैं। कुछ तो बिना विवाह के रह जाते हैं परंतु कुछ जाती और कुल की परवाह न करते हुए खुद अपना विवाह कर लेते हैं और इस विवाह को प्रेमविवाह का नाम दिया जाता है। इसी प्रकार अपनी बेटी के अनुरूप ही पढ़ा लिखा दूल्हा हर माता पिता चाहते हैं परंतु दहेज न होने के कारण पढ़ी लिखी बेटी को उम्र दराज अनपढ़ चरित्रहीन लोगों को देने की नौबत आ जाती है। और कन्या बगावत कर जाती कुल का विचार किए बगैर अपना जीवन साथी चुनने पर आमादा हो जाती है। यही कारण है कि हमारी इमारत में ज्यादातर पढें लिखे महाराष्ट्रियन परिवारों में ज्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार की कन्याएं बहू बन गयी है। महाराष्ट्रियन परिवार में एक दौर चल रहा लड़के के नाम एक फ्लैट और सरकारी नौकरी होने पर ही उस घर में अपनी लड़की देंगे। अब सबके पास सरकारी नौकरी तो हो नहीं सकती तो ऐसे लोगों ने अपना समाज बदलने में ही अपनी भलाई समझी इसी तरह मेरे एक सिंधी मित्र ने कहा मैं अपने बेटे की शादी महाराष्ट्रियन कन्या से करुंगा क्योंकि सिंधी हर लड़की को एक खूबसूरत लड़का ही चाहिए परंतु खुद घर में खाना बनाने में भी आनाकानी करती हैं। बर्तन मांजने, झाड़ू पोछा, कपड़े धोने के लिए काम वाली बाई चाहिए। यह वह कुछ बातें हैं जो मेरे सामने से होकर गुजरी है।



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