कोरोना वायरस को फैले चार महीने बीत चुके हैं, पर न इस बिमारी की दवा बनी और न ही संपूर्ण तालाबंदी से यह बिमारी रुकी, आज हर रोज चार पांच हजार लोगों के संक्रमित होने का आकड़ा सुनाई देता है। लोगों को चार महीने से घरों में बंद कर दिया गया है। कमाई का कोई जरिया नहीं, उस पर केंद्र सरकार महिने में एक बार प्रति व्यक्ति पांच किलो चावल दे रही है वह भी गरीबों को न दाल है न सब्जी इसका अर्थ यह है कि एक आदमी प्रतिदिन 167 ग्राम चावल या गेहूं खाकर जिंदा तो रहे परंतु मुर्दे के समान। राज्य सरकार कुछ मदद करने से तो रही, बदले में तीन महीनों का अनाप शनाप बिजली बिल भेजा जा रहा है।.
गौरतलब हो कि गरीबों के खर्च कम होते हैं परंतु मध्यमवर्ग कमाई आने से पहले ही खर्च का रास्ता बनाकर रखता है। मकान का किराया या फिर महिने की किस्त, गाड़ी की किस्त, बच्चों की स्कूल कालेज की फीस जैसे अनेकों खर्च मध्यम वर्ग के लोगों के सामने होते हैं परन्तु सरकारें इससे अनभिज्ञ हैं। शायद ही कोई मध्यमवर्गीय होगा जिसके पास बैंक में बैलेंस हो, परन्तु सरकारें इनके बारे में कभी नहीं सोचती जब भी कोई सरकारी योजना बनती है उसमें मध्यम वर्ग कंही दिखाई नहीं देता यह योजनाएं पांच दस फीसदी उच्च वर्गों के लिए होती हैं या फिर बीस पच्चीस फीसदी गरीबों के लिए। जबकि यही मध्यम वर्ग है जो बिना किसी लालच के घंटों कतार में खड़ा होकर मतदान करता है, जबकि ज्यादातर गरीब लोग पैसों के बगैर मतदान नहीं करते या फिर मतदान करते ही नहीं। वंही उच्च वर्ग को यह नाज होता है उनके पास पैसा है, किसी की भी सरकार हो हम अपने पैसों से सुरक्षित हैं। हमे मतदान करने की क्या जरूरत और वह लोग मतदान के दिन को छुट्टी के रूप में देखते हैं। यह मध्यम वर्ग ही है जो लोगों के मील कारखाने चलाता है। सरकार बनाता है। परन्तु इसकी परवाह किसी को नहीं। चार महीने के अंत में अगर लाकडाऊन खुलता है तब इनकी तनख्वाह एक महिने बाद आयेगी और कर्जदार लाकडाऊन खुलते ही घर के सामने खड़े होंगे, जिनके छोटे छोटे उद्योग हैं उनकी कमर सीधी होने में तो कई महिने लग जायेंगे पर बिजली वाला बिजली का बील लेकर दरवाजे पर खड़ा होगा बैंक वाला फोन पर फोन और नोटिस पर नोटिस भेज रहा है। भुगतान न पहुंचने पर फायनेंस कंपनी के लठैत दरवाजे पर पहुंच जायेंगे अगर कोई योजना नहीं बनी तो, मध्यम वर्ग के सामने आत्महत्या करने के अलावा कोई रास्ता नहीं होगा। कितने ही मध्यम वर्गीय तो इस जिंदगी से तो कोरोना से मर जाना ज्यादा बेहतर समझ रहे हैं । उल्हासनगर शहर के कैम्प क्रमांक एक में रहनेवाले एक वकील ने तो आत्महत्या कर भी ली ऐसे नये वकील जो अभी जूनियर के तौर पर कार्यरत है। उनको तनख्वाह तो नाम मात्र एक हजार से तीन हजार तक दी जाती है। वंही जो नये नये हैं, जिन्होंने अभी जल्द ही न्यायालय में कदम रखा है उनके पास कमाई के नाम पर रोज औसत पांच सौ से आठ सौ ही आता है। इसी कमाई से वे अपना घर चलाते हैं और अपना स्टैंडर्ड भी बरकरार रखते हैं। उनकी हालत इस समय बद से बदतर है परंतु न ही सरकार इस बात पर चिंतित है और न ही वकीलों का संगठन ही मजबूर वकीलों के बारे में सोचने को तैयार है। महाराष्ट्र सरकार तो लोगों को डाक्टर और वैंटीलेटर उपलब्ध कराने में ही असफल दिखाई दे रही है। इनसे कोई और उम्मीद करना धरती पर चांद उतारने जैसा होगा।
0 टिप्पणियाँ